काशी में अस्सी और अस्सी में पप्पू। ☕
आज के अक्खड़ी मिजाज वाले शहर बनारस के साल 1918 में भी, जब काशी के ब्राह्मण चाय को ‘चाह’ कहते और अंग्रेजों का पेय होने के कारण पीने से परहेज करते थे.. बाद में यह उनके घर चुपके से जाने लगी। ये जलवा है भारत में चाय का।
आठवीं पास पप्पू का नाम है विश्वनाथ सिंह। सोनभद्र [तब वह हिस्सा मीरजापुर में था] से आए उनके बाबा गणेश ने शुरू की थी दुकान। पप्पू हिट हैं तो अपनी सहजता के कारण वरना बनारस में न चाय की अड़ियों की कमी और न अड़ीबाजों की। कुछ लोग ओवररेटेड भी मानते हैं मगर यह सहज भी है दिल्ली में रहने वालों को भी लाल किला बोरिंग ही लगता है।
क्या खास है पप्पू की चाय में?
पप्पू का जवाब सीधा और बनारसी है। बोलते हैं, चाय पिलाने के अंग्रेजी तरीके का भारतीय संस्करण होने के नाते लोग पसंद करने लगे। पप्पू के यहां गर्म पानी और चाय पत्ती को मिलाकर पेय अलग से तैयार रहता है [इसे लीकर बोला जाता है] जिसे गिलासों में पहले से पड़े दूध, चीनी या नींबू में डाला जाता है।
जाते जाते यह बात दिया जाए कि इमरजेंसी के बाद उनकी ही अड़ी में जार्ज फनरंडीज ने दो घंटे प्रेस कांफ्रेंस की थी। थोड़ी बहुत की गई पप्पू जी से बातें और बाकी इधर उधर से साभार सहित सोर्स लेकर ये छोटा सा किस्सा आप लोगों के लिए।
आगे कभी मौका मिले तो बनारस ज़रूर आइये।
– Phantom